राम नवमी पर विशेष राजनीति और राम

मसला राम मंदिर का हो या राम नाम को लेकर राजनीति का, ये हमेशा से ही लोगों की रुचि का विषय रहा है। पर क्या माला के मनकों और मन की दहलीज से बसने वाले राम के नाम का उतने ही अर्थ है, जितना अधिकांश आम लोग समझते हैं?

आज जब राम और राजनीति दोनों एकाट्ठे होते हैं तो मेरे मन में यही बात उठती हैं कि राम की राजनीति तो उनकी चरित्र में हैं। समसामयिक संदर्भों में उनके नाम को लेकर जिस राजनीति की बात की चर्चा कि जाती है वह राम की नहीं, आज की राजनीतिज्ञों की राजनीति हैं। आज राम मंदिर बनाया जाये या नहीं जाये, राम सेतु को रक्खा जाये या तोड़ दिया जाये, सीता की जन्मभूमि का पता नहीं चलाता तो उनके अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगाया जाये, न्यायालय में इन पात्रों को इतिहास माना जाए, या काल्पनिक कहकर नाकार दिया जाए, ये सब समसामयिक राजनीतिज्ञों की नीतियाँ और कार्य है।

राम नीति को जानने के लिए उनके चरित्र पर अध्ययन करना होगा। ये नाम और घटना चाहे प्राचीन लगे, किंतु समस्याएं तो वो आज की है। सिर्फ नाम बदले हैं कार्य तो वही है। तब भी निर्माण और ध्वंस की शक्तियाँ परस्पर लड़ रही थी। इसलिए राम की नीतियों का आज भी उनके चरित्र में देखना होगा, समसामयिक घटनाओं में नहीं।
हमें आजके राज नेताओं को उनसे अलग करके ही देखना होगा। आजके कृत्यों को हम राम या उनके काल पर नहीं थोंप सकते, किंतु नीति और धर्म के रुप में राम और वाल्मीकि से बहुत कुछ प्राप्त कर सकते हैं।

रामकथा के बालकांड में एक प्रकार से अवध से अधिक महत्वपूर्ण मिथिला है। राजा जनक के राज्य के निकट ही ऋषि विश्वामित्र का सिध्याश्रम था। वहीं मलद और करुष नाम में दो छोटे राज्य थे। ताड़का और उनकी सेना सिद्धाश्रम आक्रमण कर रही थी। उन्हीं वनों में अपना दुर्ग बना कर अतंग फैला रही थी।
हमारे इतिहास रहा कि राजा देश की रक्षा करता है। और ऋषि राष्ट्र का चिंता करता है। राम के जीवन में आने वाले सबसे पहले ऋषि विश्वामित्रा थे। विश्वामित्र अपने और अपने आश्रम के रक्षा कर सकते थे। वहीं कारण है कि दशरथ से राम को मांगते हुए उन्होंने कहा था कि वे उन्हें दश दिनों के लिए राम दे दें। वे उन्हें सुरक्षित वापस लौटा देंगे। मार्ग में उन्होंने राम से शास्त्रों का चर्चा ही नहीं की थी। उन्हें शास्त्र दिए भी थे, और उनके परिचालन के विधि भी सिखाई थी। स्पष्ट है कि वे अपने शत्रुओं से लड़ने का समर्थ थे। किंतु ऋषि के चिंता केवल अपना शत्रुओं की ही नहीं, सम्पूर्ण राष्ट्र की होती है।

वे देख रहे थे कि आर्यावर्त में एक ऐसी दुष्ट घुस आई थी, जो राष्ट्र के लोगों के सुखी जीवन को नष्ट करने चाहती थी। और अधर्मपुर्ण शासन को स्थापित करने चाहती थी। आपने-आपने आश्रमों में बैठे ऋषि अपनी बौद्धिक और समारिक शक्ति से उसका प्रतिवाद कर रहे थे। विश्वामित्र, शरभंग और अगस्त्य उनमें प्रमुख थे। विश्वामित्र इस आंदोलन में राजशक्ति को जोड़ना चाहते थे, इसलिए ये युवा राम को अयोध्या से ताड़कावन लाए थे। ताकि वे उनके राक्षसी आतंक से परिचय करा सकें।
राम ने विश्वामित्र के यग्य की रक्षा की सेना नष्ट कर दिया। विश्वामित्र को अब अपने वचन के अनुसार अयोध्या लौट जाना चाहिए था, किंतु अपने योजना के अनुसार जनकपुर के ओर बढ़े। गौतम भी ऋषि थे। ऋषि के अर्थ है बुद्धिजीवी। गौतम के आश्रम में जो अतवासी थे, वो भी ऋषि थे। ऋषि जो भिक्षा पर निर्भर रह कर भी राष्ट्र के हित की बात सोचता था।

गौतम के आश्रम के बुद्धिजीवी इंद्र के विरोध के भय से अहल्या को दोषी और दूषित ठहरा कर आश्रम त्याग कर अन्यत्र चले गये थे। स्वयं गौतम भी अहल्या का त्याग कर अपने नये आश्रम में चले गये थे। अहल्या का अपना पुत्र शतानन्द,सीरध्वज जनक का राजगुरु होते हुए भी ना अपनी माता को समाजिक सम्मान दिलवा पाया था, न इंद्र की राजशक्ति के विरुद्ध कुछ बोल पाया था। विश्वामित्र बुद्धिजीवियों के इस समाजिक अनाचार और राजशक्ति के इस भय से पीड़ित थे।
वे राम को राजा और ऋषियों के इस अन्याय से भी परिचित कराने चाहते थे। वे राम को अहल्या के निवास में लाए। वाल्मीकिय रामायण के अनुसार, राम ने समाज व शासन के इस अधर्म को देखा और अहल्या के चरण छूकर एक प्रकार से समाज की ओर से क्षमा प्रार्थना की। इतना ही नहीं अहल्या को गौतम से मिलाया और गौतम ने अपनी पत्नी को निर्दोष मानकर उसे स्वीकार किया।
यह ऋषि की समाजिक न्याय की दृष्टि थी, और उसे कार्यान्वित करने वाले श्रीराम थे। किंतु विश्वामित्र तो आर्यावर्त के भविष्य के विषय में सोच रहे थे, राम वे जानते थे। यही कारण है कि उन्होंने विश्वामित्र के किसी भी निर्णय पर कोई प्रश्नों नहीं उठाया ।
अवध और मिथिला मे या तो कोई संपर्क ही नहीं था। या फिर उन दोनों राज्यों किसी प्रकार वैमनस्य था। अतः उन दोनों में मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने के लिए विश्वामित्र के मन में एक योजना थी। यदि सीता और राम की शादी हो जाता तो उन दोनों राजाओं में दृढ़ और घनिष्ठ संबंध स्थापित हो जाता।
राक्षसों के नाश के लिए राम को वन जाना भी अनिवार्य था। विश्वामित्र ने इस सारे योजना के लिए राम क इसलिए ही चुना था कि वे अपनी राजधानी के सुख-अराम को त्याग कर वन जाने के लिए तैयार थे। किंतु यदि वे वन जाते तो उनकी पत्नी उनके मार्ग की सबसे बड़ी बाधा बन सकती थी। इसलिए विश्वामित्र ने सीता को चना था, जो एक भुमिपुत्री थी। और दुसरी ओर जनक के महलों में राजसी संस्कारों में पली थी। वह वन में भुमिपुत्री बन कर रह सकती थी और अयोध्या के राजमहलों में राजरानी बनकर। इसलिए वहाँ राम के वन गमन में बाधा नहीं बनती।

विश्वामित्र जानते थे कि जनक और दशरथ की एक दुसरे के प्रति उदासीनता, इस विवाह में बाधा भी बन सकती थी। किंतु स्यंयवर में जय की हुई वीर्य शुक्ला पुत्र वधू को दशरथ अस्वीकार नहीं कर सकते थे,और न ही जनक चक्रवाती दशरथ के पुत्र राम को स्वंयवर में भाग लेने से रोक सकते थे। विश्वामित्र ने राम के विवाह के लिए उनके पिता से नहीं अनुमति मांगी, न ही जनक को राम के आने के पूर्व सुचना दी। राम ऋषियों की इस राजनीति को समझ रहे थे। इस लिए राक्षसी आतंक को समाप्त करने के लिए वे इस योजना के अंग बन गये थे, और उसकी सारी विपत्तियां झेलने को तैयार थे।

इसके आगे सारे रामकथा इसी राजनीतिक योजना का विस्तार ही है। उनकी राजनीति का उदुघोष शरभंग के आश्रम में हुआ था। 'निसिचरहीन करौं मही' भुज उठाई प्रण कीन्ह। राम की ही नहीं, हमारे देश की राजनीति का सुत्र ही राम के चरित्र में पिरोया गया है। राजा को ऋषि के सहयोग से अपनी प्रजा का पालन करना होगा उसकी अधर्म अन्याय से रक्षा करने पड़ेगी।


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